रोनाल्ड रास का जन्म सन 1857 में आधुनिक उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में हुआ था उनके पिता ब्रिटिश सेना में जनरल थे इनकी तैनाती भारत में भी रोना क्रश 8 वर्ष के उम्र में भारत में रहे इसके बाद उन्हें इंग्लैंड के आवासीय विद्यालय में भेजा गया उन्होंने लंदन से सेंट बार्थोलोमु अस्पताल से चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई की
जब रास छोटे थे तब उन्होंने देखा हम कि भारत में मलेरिया के कारण अनेक लोगों की मौत हो जाती थी कारगर दवाओं की कमी के कारण हर साल लगभग 10 लाख लोग मलेरिया के कारण मर जाते थे तब रास भारत में थे उनके पिता को भी मलेरिया हो गया था लेकिन सौभाग्य से वह ठीक हो गए थे इस भैयावह बीमारी ने उनके मन में अमिट छाप छोड़ी ।
जब रास ब्रिटिश इंडियन चिकित्सा सेवाओं के अंतर्गत भारत वापस लौटे तब उन्हें मद्रास भेजा गया वहां उनका ज्यादातर काम सेना के मलेरिया पीड़ित मरीजों के उपचार से संबंधित था
रोनाल्ड रॉस ने 1897 इसवी में मच्छरों और मलेरिया के बीच के संबंध हो साबित किया ऐसा करके उन्होंने वैज्ञानिक अल फोनस लॉरेन और सर पैट्रिक द्वारा पहले से स्वतंत्र रूप में कार्य करते हुए इस संबंध में प्रस्तुत अवधारणा की पुष्टि की।
उस समय तक ऐसा माना जाता था कि मलेरिया का कारण गंदी हवा और ऐसे स्थान पर रहना जो काफी गर्म आद्र एवं दलदली हो रास ने सन 1882 तक मलेरिया पर अध्ययन किया ऊटी में तैनाती के दौरान वह खुद मलेरिया से पीड़ित हो गए उसके बाद उनका तबादला सिकंदराबाद में उस्मानिया विश्वविद्यालय के आयुर्विज्ञान विभाग में हुआ ।
वहां उन्होंने मच्छरों की एक विशिष्ट प्रजाति एनाफिलीज में मलेरिया के परजीव की खोज की आरंभ में उन्होंने इस प्रजाति को चितकबरा पंख नाम दिया रास ने मलेरिया से पीड़ित व्यक्ति का खून चूसने वाले एक मच्छर के पेट का विच्छेदन करने के बाद उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण खोज की
उन्होंने मलेरिया के रोगी के शरीर में देखे गए परजीवी को मच्छर के पेट में देखा आगे विस्तृत शोध के बाद उन्होंने मलेरिया परजीवी के पूरे जीवन चक्र की व्याख्या की। उनका मुख्य योगदान मलेरिया जैसी महामारी पर गहन अध्ययन करके इसके सर्वेक्षण एवं आकलन की विधि का विकास करना था।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने इसके अध्ययन के लिए गणितीय मॉडल विकसित किए थे रॉस को चिकित्सा विज्ञान में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए सन उन्नीस सौ दो में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था चिकित्सा के क्षेत्र में उनके इस महान कार्य के लिए उन्हें नाइट की उपाधि से सम्मानित किया गया था सन 1926 में रॉस लंदन में उनके सम्मान में स्थापित रॉस इंस्टीट्यूट एंड हॉस्पिटल फॉर ट्रॉपिकल डिजीज के निदेशक बने रास के सर्वेक्षणों द्वारा विभिन्न देशों में मलेरिया के कारणों और उनकी रोकथाम पर कार्य आरंभ हुई है उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान पश्चिम अफ्रीका ग्रीस मॉरीशस साइप्रस श्रीलंका और मलेरिया से प्रभावित कई क्षेत्रों में मलेरिया की रोकथाम के लिए योजनाओं की पहल की।
भारत में राज़ को सम्मान के साथ याद किया जाता है भारत के कई कस्बों और शहरों के मार्गों का नामकरण उनके नाम पर किया गया है उनकी सेवाओं के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए भारत में हैदराबाद स्थित क्षेत्रीय संक्रामक रोग चिकित्सालय का नामकरण सर रोनाल्ड रास उष्णकटिबंधीय और संचारी रोग संस्थान किया गया है सिकंदराबाद में पुराने बेगमपेट हवाई अड्डे के पास स्थित जिस इमारत में कार्य करते हुए उन्होंने मलेरिया परजीवी की खोज की थी उसे आज एक विरासत स्थल का रूप देने के अलावा उससे लगे मार्ग का नामकरण सर रोनाल्ड रॉस मार्ग किया गया है ।
कोलकाता के एसएसकेएम चिकित्सालय की दीवार को एक स्मारक का रूप देते हुए रास् की खोजों को लिखा गया है इस स्मारक का अनावरण स्वयं रास की उपस्थित में लॉर्ड लिटन द्वारा 7 जनवरी 1927 को किया गया था।
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फाइल फोटो रोनाल्ड रॉस |
जब रास छोटे थे तब उन्होंने देखा हम कि भारत में मलेरिया के कारण अनेक लोगों की मौत हो जाती थी कारगर दवाओं की कमी के कारण हर साल लगभग 10 लाख लोग मलेरिया के कारण मर जाते थे तब रास भारत में थे उनके पिता को भी मलेरिया हो गया था लेकिन सौभाग्य से वह ठीक हो गए थे इस भैयावह बीमारी ने उनके मन में अमिट छाप छोड़ी ।
जब रास ब्रिटिश इंडियन चिकित्सा सेवाओं के अंतर्गत भारत वापस लौटे तब उन्हें मद्रास भेजा गया वहां उनका ज्यादातर काम सेना के मलेरिया पीड़ित मरीजों के उपचार से संबंधित था
रोनाल्ड रॉस ने 1897 इसवी में मच्छरों और मलेरिया के बीच के संबंध हो साबित किया ऐसा करके उन्होंने वैज्ञानिक अल फोनस लॉरेन और सर पैट्रिक द्वारा पहले से स्वतंत्र रूप में कार्य करते हुए इस संबंध में प्रस्तुत अवधारणा की पुष्टि की।
उस समय तक ऐसा माना जाता था कि मलेरिया का कारण गंदी हवा और ऐसे स्थान पर रहना जो काफी गर्म आद्र एवं दलदली हो रास ने सन 1882 तक मलेरिया पर अध्ययन किया ऊटी में तैनाती के दौरान वह खुद मलेरिया से पीड़ित हो गए उसके बाद उनका तबादला सिकंदराबाद में उस्मानिया विश्वविद्यालय के आयुर्विज्ञान विभाग में हुआ ।
वहां उन्होंने मच्छरों की एक विशिष्ट प्रजाति एनाफिलीज में मलेरिया के परजीव की खोज की आरंभ में उन्होंने इस प्रजाति को चितकबरा पंख नाम दिया रास ने मलेरिया से पीड़ित व्यक्ति का खून चूसने वाले एक मच्छर के पेट का विच्छेदन करने के बाद उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण खोज की
उन्होंने मलेरिया के रोगी के शरीर में देखे गए परजीवी को मच्छर के पेट में देखा आगे विस्तृत शोध के बाद उन्होंने मलेरिया परजीवी के पूरे जीवन चक्र की व्याख्या की। उनका मुख्य योगदान मलेरिया जैसी महामारी पर गहन अध्ययन करके इसके सर्वेक्षण एवं आकलन की विधि का विकास करना था।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने इसके अध्ययन के लिए गणितीय मॉडल विकसित किए थे रॉस को चिकित्सा विज्ञान में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए सन उन्नीस सौ दो में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था चिकित्सा के क्षेत्र में उनके इस महान कार्य के लिए उन्हें नाइट की उपाधि से सम्मानित किया गया था सन 1926 में रॉस लंदन में उनके सम्मान में स्थापित रॉस इंस्टीट्यूट एंड हॉस्पिटल फॉर ट्रॉपिकल डिजीज के निदेशक बने रास के सर्वेक्षणों द्वारा विभिन्न देशों में मलेरिया के कारणों और उनकी रोकथाम पर कार्य आरंभ हुई है उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान पश्चिम अफ्रीका ग्रीस मॉरीशस साइप्रस श्रीलंका और मलेरिया से प्रभावित कई क्षेत्रों में मलेरिया की रोकथाम के लिए योजनाओं की पहल की।
भारत में राज़ को सम्मान के साथ याद किया जाता है भारत के कई कस्बों और शहरों के मार्गों का नामकरण उनके नाम पर किया गया है उनकी सेवाओं के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए भारत में हैदराबाद स्थित क्षेत्रीय संक्रामक रोग चिकित्सालय का नामकरण सर रोनाल्ड रास उष्णकटिबंधीय और संचारी रोग संस्थान किया गया है सिकंदराबाद में पुराने बेगमपेट हवाई अड्डे के पास स्थित जिस इमारत में कार्य करते हुए उन्होंने मलेरिया परजीवी की खोज की थी उसे आज एक विरासत स्थल का रूप देने के अलावा उससे लगे मार्ग का नामकरण सर रोनाल्ड रॉस मार्ग किया गया है ।
कोलकाता के एसएसकेएम चिकित्सालय की दीवार को एक स्मारक का रूप देते हुए रास् की खोजों को लिखा गया है इस स्मारक का अनावरण स्वयं रास की उपस्थित में लॉर्ड लिटन द्वारा 7 जनवरी 1927 को किया गया था।
नाइस मयंक 🤗
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